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आ सूर्यो॑ अरुहच्छु॒क्रमर्णोऽयु॑क्त॒ यद्ध॒रितो॑ वी॒तपृ॑ष्ठाः। उ॒द्ना न नाव॑मनयन्त॒ धीरा॑ आशृण्व॒तीरापो॑ अ॒र्वाग॑तिष्ठन् ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā sūryo aruhac chukram arṇo yukta yad dharito vītapṛṣṭhāḥ | udnā na nāvam anayanta dhīrā āśṛṇvatīr āpo arvāg atiṣṭhan ||

पद पाठ

आ। सूर्यः॑। अ॒रु॒ह॒त्। शु॒क्रम्। अर्णः॑। अयु॑क्त। यत्। ह॒रितः॑। वीतऽपृ॑ष्ठाः। उ॒द्ना। न। नाव॑म्। अ॒न॒य॒न्त॒। धीराः॑। आ॒ऽशृ॒ण्व॒तीः। आपः॑। अ॒र्वाक्। अ॒ति॒ष्ठ॒न् ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:45» मन्त्र:10 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:5» अनुवाक:4» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यत्) जो (सूर्य्यः) सूर्य्य (शुक्रम्) वीर्य का (आ, अरुहत्) आरोहण करता और (अर्णः) उदक का (अयुक्त) योग करता है और (वीतपृष्ठाः) व्याप्त हैं लोकान्तरों के पृष्ठ जिनसे वे (हरितः) जल आदि को हरनेवाले (धीराः) ध्यानवान् बुद्धिमान् जन (उद्ना) जल से (नावम्) नौका को (न) जैसे वैसे (अनयन्त) प्राप्त होते अर्थात् व्यवहार को पहुँचते हैं (अर्वाक्) पीछे (आशृण्वतीः) जो चारों ओर से सुन पड़ते हैं वह (आपः) प्राण (अतिष्ठन्) स्थित होते हैं, उस सब को आप लोग जानें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य सूर्य्य और जल आदि की विद्याओं को जान के नौका आदि को चलावें, वे लक्ष्मीवान् होते हैं ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यत्सूर्यः शुक्रमारुहदर्णोऽयुक्त वीतपृष्ठा हरितो धीरा उद्ना नावं नानयन्तार्वागाशृण्वतीरापोऽतिष्ठन् तत्सर्वं यूयं विजानीत ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) (सूर्य्यः) (अरुहत्) रोहति (शुक्रम्) वीर्य्यम् (अर्णः) उदकम् (अयुक्त) युनक्ति (यत्) (हरितः) ये हरन्त्युदकादिकम् (वीतपृष्ठाः) वीतानि व्याप्तानि लोकलोकान्तराणां पृष्ठानि यैस्ते (उद्ना) उदकेन (न) इव (नावम्) (अनयन्त) नयन्ति (धीराः) ध्यानवन्तो मेधाविनः (आशृण्वतीः) याः समन्ताच्छ्रूयन्ते ताः (आपः) प्राणाः (अर्वाक्) पश्चात् (अतिष्ठन्) तिष्ठन्ति ॥१०॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः सूर्य्यजलादिविद्यां विज्ञाय नावादिकं चालयेयुस्ते श्रीमन्तो जायन्ते ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे सूर्य, जल इत्यादी विद्या जाणून नावा वगैरे चालवितात ती श्रीमंत होतात. ॥ १० ॥